मोदी ने 2014 के चुनाव में जिस तरह सोशल मीडिया का इस्तेमाल किया, बहुतों को उसमें ओबामा के चुनावी अभियान की झलक दिखाई दी थी.
उनकी चुनावी मुहिम चलाने वाले कई मैनेजरों ने जिस तरह डेटा का इस्तेमाल किया, उस पर भी जैसे 'मेड इन अमरीका' की मुहर लगी हुई थी.
मगर इस बार अमरीकी चुनाव में ख़ासतौर से रिपब्लिकन पार्टी की उम्मीदवारी की रेस में लग रहा है जैसे 'मेड इन इंडिया' वाले चुनावी दांवपेंच की ज़रूरत पड़ने वाली है.
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और पूरी दुनिया को सौदेबाज़ी और डील-मेकिंग पर लेक्चर देने वाले डोनल्ड ट्रंप साहब को तो शायद सबसे ज़्यादा ज़रूरत पड़ेगी.
अब पहेलियां बुझाना छोड़कर मुद्दे पर आता हूँ.
प्राइमरी चुनावों में जब कोई उम्मीदवार किसी राज्य में जीत हासिल करता है तो उस राज्य की आबादी के हिसाब से कुछ डेलीगेट्स या प्रतिनिधि उस उम्मीदवार के खाते में जाते हैं.
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रिपब्लिकन पार्टी में जो उम्मीदवार 1237 डेलीगेट्स हासिल कर लेता है, वही पार्टी का उम्मीदवार बन जाता है.
आमतौर से जुलाई में एक राष्ट्रीय कन्वेंशन के दौरान ये डेलिगेट्स एक बार फिर उस उम्मीदवार के लिए वोट डालते हैं, जिसके खाते में उनका नाम डाला गया है.
तो अगर ट्रंप को 1237 डेलीगेट्स मिले तो ये सभी उन्हीं के लिए वोट डालेंगे. टेड क्रूज़ को 700 मिले तो ये सभी क्रूज़ के लिए ही वोट डालेंगे और फिर औपचारिक तौर से ट्रंप के नाम का ऐलान हो जाएगा.
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लेकिन अगर ट्रंप को 1237 की जगह 1200 डेलीगेट्स ही मिल पाए, तब क्या होगा?
भाई साहब तब होगा असली खेल, और यहां ज़रूरत पड़ेगी देसी नुस्खों की क्योंकि तब दोबारा से कन्वेंशन के फ़्लोर पर ही वोटिंग होगी.
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बड़ा फ़र्क यह होगा कि अब जो डेलीगेट्स राज्यों में जीत के बाद किसी उम्मीदवार को दिए गए थे, वो आज़ाद हो जाएंगे और कन्वेंशन के दौरान जिसे चाहे वोट दे सकते हैं.
और तब बिल्कुल "लैला की उंगलियां ले लो, मजनू की पसलियां ले लो, ताज़ी-ताज़ी ककड़ियां ले लो" वाले अंदाज़ में सभी उम्मीदवार डेलीगेट्स को अपनी तरफ़ खींचने के लिए झूल-झूलकर आवाज़ लगाएंगे.
इसके अलावा ये भी ज़रूरी है कि पहले से इन डेलीगेट्स को थोड़ी मालिश, थोड़ा मक्खन, थोड़ा और भी वगैरह-वगैरह देकर अपने साथ रखा जाए जिससे कि अगर दूसरे राउंड की वोटिंग हुई, तो वह आपके ही बाड़े में रहें, दूसरे की तरफ़ न भाग लें.
अब अपने यहां तो आप जानते ही हैं कि हर पार्टी को कितना तजुर्बा है अपनी भेड़ों को अपने बाड़े में बंद रखने का.
कभी देहरादून से दिल्ली उड़ाकर ले जाया जाता है उन्हें और फ़ाइव स्टार आरामगाहों में ताला-चाबी लगाकर बंद कर दिया जाता है. कभी जयपुर की सैर तो कभी मुंबई की हवा खिलाई जाती है.
एक-दो विदेशी ट्रिप्स की भी उम्मीद दी जाती है और बाक़ी जो वगैरह-वगैरह हैं, उनका हमें और आपको क्या पता. वो सब तो पर्दे के पीछे की बातें हैं!
अब वो जो तजुर्बा है, यहां ज़रा कम हो गया है क्योंकि फ़ोर्ड और निक्सन के बीच जो डेलीगेट्स की मारामारी हुई थी 1976 में, यानी 40 साल पहले, उसके बाद यह नौबत अब तक आई ही नहीं है.
आमतौर पर डेलीगेट्स पार्टी के सत्ताधीश तय करते हैं और उन पर उनकी पकड़ भी मज़बूत होती है.
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लेकिन अगर ट्रंप साहब को 1237 डेलीगेट्स मिले तब तो मजबूरी में इन सबको उन्हें वोट देना ही होगा.
लेकिन अगर न मिले तो पार्टी वालों की चलेगी और माना जा रहा है कि वो डेलीगेट्स पर अपनी पकड़ मज़बूत कर चुके हैं और टेड क्रूज़ जो नंबर दो पर चल रहे हैं, वोट उनके हक़ में जाएंगे और क्रूज़ चीख-चीखकर इसका ऐलान भी कर रहे हैं.
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तो ट्रंप साहब के पास रास्ता यही है कि या तो आने वाले राज्यों में भारी जीत हासिल करके 1237 का मैजिक नंबर हासिल करें और पार्टी के मसनदनशींनों को अंगूठा दिखाएं या फिर एक ऐसा गड़रिया ढूंढें जो उनकी भेड़ों को संभाल सके.
कुछ पुराने दिग्गज कह रहे हैं कि चाहे इन डेलीगेट्स को अपने सोने की सीटबेल्ट लगे जहाज़ में सैर करवाना हो, अपने गॉल्फ़ क्लब्स की ज़िंदगी भर की मेंबरशिप देनी हो, आलीशान फ़ाइव स्टार्स में ठहराना हो, ट्रंप साहब को यह सब करना होगा.
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Posted on 04-15-16 11:25
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